एक दिन, दोपहर में,
मैं एक पगडंडी पर टहल रहा था,
ख़यालों में जाने कौन से,
बार बार ठोकर खा के संभल रहा था।
तभी अचानक पीछे से,
किसी ‘परिचित’ ने आवाज़ लगाई,
आकर मेरे बगल में उसने,
कहा “इतना क्यों सोच रहे हो भाई”।
मैं हैरान सा अवाक खड़ा,
उसकी ओर ताकता रहा,
जानता तो था उसे पर,
मैंने कुछ ना कहा।
“भाई साहेब! मेरी बात मानो,
संभल जाओ,” कहकर उसने यूँ चुटकी बजाई,
समझ रहा था उसकी बात पर ,
मैंने उससे नज़रें ना मिलयी।
कंधे पर हाथ रखकर,
वो मेरे साथ चलने लगा,
वो अंश था मेरा इसलिए ,
वो मुझसे अलग ना था।
“समझ रहा हूँ तेरी व्यथा मैं,
मुझसे कुछ छुपा नही है,,
इतना समझाया था तुझे पर,
तेरा ध्यान अब भी वहीं है”।
“सबकुछ जानता है पर,
अंजान बना फिरता है,
दबाए अपने गम को,
बड़ा बना ‘उसे’ क्यों गिरता है।
ये अंदर जो कुछ दबा है,
कब तक आग जलाए रखोगे,
त्याग दो पूरी वजह बस,
कब तक इससे तुम बचोगे,
जानता हूं किसीसे कहोगे नही,
ना किसीको कुछ बताओगे,
ये धुआं बस मन बहलाता है,
दूर रहो तुम वरना मर जाओगे,
दुनिया कुछ ऐसी ही है जो,
तुम भोले बने थे चल रहे,
किसीने बस खेल खेला और,
तुम समझते हुए भी असफल रहे।
वक्त अभी भी है ना बदला,
तुम संभल भी जाओगे,
चलो अब बंद करो नाटक,
कसम दो तुम वापस आओगे।”
करके थोड़ी बातें उसने,
मेरे मन को सहला दिया,
खुद को सुना के अपनी कहानी,
मेने खुद को ही रुला दिया।
नहीं देखूँगा वो स्वप्न मैं अब,
जिन्हें कभी मैं रोक ना सका,
शायद “वो” हमदर्द था मेरा,
जिसका ये असर था।
हमदर्द मैं अपना खुद बना,
आगमन हुआ फिर नयी बसंत का,
एक संक्षिप्त अंत था यह,
मेरे “आंतरिक द्वंद” का………..।
© रचयिता : अंकुश आनंद ‘अक्ष आंश’
Mayan Guleria says
?✍️
Ankush Anand says
Thanks