10 साल पहले
अभी अभी स्कूल से छुट्टी हुई थी. मेरे सभी सहपाठी अपने मम्मी पापा के साथ घर जा रहे थे. पर मुझे पता था ऐसा कुछ मेरे साथ नही होगा अब. मैं अकेले वहाँ से निकल पड़ा. घर को जाने वाला रास्ता कुल्लू बाज़ार से होकर जाता था. मुझे अभी काफ़ी चढ़ाई चढ़नी थी. कंधे पर मेरे बैग और पीठ के बीच रखी लकड़ी की पट्टी / तख्ता पीठ में दर्द कर रहा था. पर इससे भी ज़्यादा दर्द कहीं और था, वो था छाती जेब के पास. कहीं अंदर.
मेरा घर मेरे पापा के टाइपिंग सेंटर के साथ ही था. था तो ये एक क्वॉर्टर पर मैं इसे घर ही कहा करता था. सो अभी आधी दूरी पूरी हुई थी कि मेरी पीठ से पट्टी एक तरफ गिर गयी और मेरे विचारों के आसमान मे अंधकार कर दिया. जब मैं वर्तमान में पहुँचा तो पाया कि एक आदमी मेरी ओर जाने किस बात के गुस्से से देख रहा था. ध्यान से देखने पर मालूम पड़ा कि मेरी पट्टी उनके पैरों पर थी. मेने देर ना करते हुए पट्टी उठा ली, और अपनी मंज़िल की ओर चल पड़ा.
अपने घर-कम-टाइपिंग सेंटर की लोहे की काली सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते जाने क्यूँ बारिश सी बूँद मेरे हाथों पर गिरी. मेने आसमान की ओर देखा तो पाया आसमान बिल्कुल साफ था. इससे पहले की कोई और विचार मन मैं आता. मैं अंदर चला गया. पापा अभी अकेले थे. शायद सीखने वाले वो भाईया चले गये थे. मैं पापा की ओर बिना देखे बेडरूम की और हो लिया.
पापा जाने कब मेरे पीछे साथ ही आ गये.
“खाना किचॅन मैं है, जल्दी से खा कर पढ़ने बैठ जा”
पापा ने हमेशा की तरह अपने रोब भरे अंदाज मे कहा.
मैं चुपचाप किचन मे गया और कुकर का ढक्कन खोला. रोज को तरह उसमे पलाव ही था.
एक बार फिर बारिश का सा .छिंटा कहीं से आ टपका.
पापा ने खिड़की से कहा. “क्या हुआ तुझे. क्यूँ रो रहा है”
मैने कुछ नही कहा.
“क्या हुआ ओये”
मैने इस बार कहा, “मम्मी जी वापिस क्यूँ नही आती. मुझसे नही खाई जाता पलाव रोज रोज. मुझे मम्मी के पास जाना है.” मैने रोते रोते कहा.
आँखो से आँसू थमने का नाम ना लेते.
“नही खाया जाता तो बोल तुझे आनथआश्र्म मे भेज दूं. फिर खाना मज़े से रोटी वहाँ” , यह कहकर पापा कमरा छोड़ कर चले गये .
रह गया मैं 8 साल का तीसरी कक्षा का विद्यार्थी, जो तड़फ़ रहा था प्यार के लिए. उस प्यार के लिए जो कोई और दे नही सकता था. और जो था इस काबिल वो 80 किलोमीटर दूर कहीं निमोनिया की बीमारी से कमजोर पड़ा था. वो मुझसे दूर वहाँ जाने कब से तड़फ़ रही थी. और मैं इतना कमजोर था कि उसके पास ना जा सकता था ना उससे बात कर सकता था. जो मेरे बस मैं था वो था बस जी भर के रो देना… बस जी भर के रो देना.
© अंकुश आनंद
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